पहाड़ों का जीवन हमेशा से ही चुनौतियों और संघर्षों से भरा रहा है। यहां की भौगोलिक परिस्थितियां, संसाधनों की कमी और कठिन जीवनशैली ने लोगों को आत्मनिर्भर और श्रमशील बनाया है। इन्हीं संघर्षों की एक अनोखी बानगी रही है—ढाकर।
क्या है ढाकर?
‘ढाकर’ शब्द का अर्थ होता है ढोकर ले जाना। पुराने समय में जब यातायात और संचार के साधन सीमित थे, तब पहाड़ों में रहने वाले लोग सैकड़ों किलोमीटर दूर पैदल यात्रा करते थे। ये यात्रा सिर्फ एक उद्देश्य से होती थी—जरूरत की वस्तुएं लाना। जो लोग यह यात्रा करते थे, उन्हें ढाकरी कहा जाता था।
कैसे होती थी ढाकर यात्रा?
ढाकरी अपने खेतों और सग्वाड़ों (घरों के पास की ज़मीन) में उगाई गई मिर्च, धान, या अन्य उपज को अपने साथ ढोकर ले जाते थे। इन वस्तुओं को वे ढाकर मंडियों में बेचते थे, जो कोटद्वार सहित कई स्थानों पर लगती थीं। बदले में वे नमक, कपड़े, सब्जियां और अन्य ज़रूरी चीज़ें खरीदते थे।
ढाकरी पड़ाव और सांस्कृतिक रंग
ढाकर की यात्रा कोई एक-दो दिन की नहीं होती थी। यह सैकड़ों किलोमीटर लंबी और कई दिनों तक चलने वाली यात्रा होती थी। रास्ते में ढाकरी पड़ाव होते थे—जैसे बांघाट और दुग्गड्डा, जहां ढाकरी रात बिताते थे। इन पड़ावों पर न सिर्फ आराम किया जाता था, बल्कि सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते थे।
मनोरंजन के लिए नाच-गाना, जादू-टोना, लोकगीत और मैणा (स्थानीय कहावतें व लोककथाएं) प्रस्तुत किए जाते थे। इन प्रस्तुतियों के बदले में कलाकारों को इनामी राशि दी जाती थी, जिससे उनका जीवन यापन होता था।
एक लुप्त होती परंपरा
आज के युग में सड़कें, वाहन और आधुनिक बाजारों ने ढाकर जैसी परंपराओं को लगभग समाप्त कर दिया है। लेकिन एक समय था, जब इस परंपरा से आधे पहाड़ की आजीविका जुड़ी हुई थी। ढाकर सिर्फ जरूरत की चीजें लाने का माध्यम नहीं था, बल्कि यह पहाड़ी जीवन के संघर्ष, आत्मनिर्भरता और सांस्कृतिक समृद्धि का प्रतीक था।
निष्कर्ष
ढाकर केवल एक यात्रा नहीं थी, वह एक संघर्षमयी जीवनशैली का हिस्सा थी। यह परंपरा आज भले ही लुप्त हो गई हो, लेकिन इसकी यादें और प्रभाव पहाड़ों के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में आज भी महसूस किए जा सकते हैं। ऐसे लोक-परंपराएं न केवल इतिहास का हिस्सा हैं, बल्कि वे आने वाली पीढ़ियों को अपने अतीत से जोड़ने का माध्यम भी हैं।